न्यू इंडियन एक्सप्रेस के मुताबिक, दादाभॉय ने अपनी जीवनी ‘होमी जे भाभा: ए लाइफ’ में कहा, “पूरी संभावना है कि युद्ध समाप्त होने के बाद भाभा की मुलाकात ओपेनहाइमर से हुई और दोनों अच्छे दोस्त बन गए. यह कोई आश्चर्य की बात नहीं थी, क्योंकि भाभा की तरह ओपेनहाइमर भी एक सभ्य इंसान थे. उन्होंने संस्कृत का अध्ययन किया था. साथ ही लैटिन और ग्रीक भाषा के भी जानकार थे.”
बीबीसी के अनुसार, द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान हिरोशिमा और नागासाकी पर उनके द्वारा बनाए गए परमाणु बम गिराए जाने के बाद, ओपेनहाइमर चौंक गए थे. बाद में, उन्होंने शक्तिशाली बम विकसित करने के बारे में अपने सहयोगियों की झिझक पर कहा था कि वे केवल अपना काम कर रहे हैं और हथियार का उपयोग कैसे किया जाना चाहिए, इस बारे में फैसला के लिए वे जिम्मेदार नहीं हैं.
लेकिन एक बार काम पूरा हो जाने के बाद, भौतिक विज्ञानी ने आगे के हथियारों, विशेष रूप से हाइड्रोजन बमों के विकास के खिलाफ तर्क दिया.
बीबीसी के अनुसार, बदले हुए रुख के परिणामस्वरूप 1954 में अमेरिकी सरकार द्वारा ओपेनहाइमर की जांच की गई और उनकी सुरक्षा मंजूरी छीन ली गई, फिर वह नीतिगत निर्णयों में शामिल नहीं हो सके. ऐसे भी आरोप थे कि ओपेनहाइमर और उनकी पत्नी कैथरीन के कम्यूनिज्म से संबंध थे.
दादाभाई ने इस मुद्दे के बारे में कहा, “जब ओपेनहाइमर ने 1954 में अपनी सुरक्षा मंजूरी खो दी थी, तो संभवतः भाभा के हस्तक्षेप पर जवाहरलाल नेहरू ने उन्हें एक से अधिक अवसरों पर भारत आने के लिए आमंत्रित किया था, और यहां तक कि अगर वे चाहें तो प्रवास भी कर सकते थे.”
लेकिन टाइम्स ऑफ इंडिया के अनुसार, भौतिक विज्ञानी ने मना कर दिया, क्योंकि उन्हें लगा कि जब तक वह सभी आरोपों से मुक्त नहीं हो जाते, तब तक उनके लिए अमेरिका छोड़ना उचित नहीं होगा.
दादाभाई की पुस्तक के हवाले से कहा गया, “उन्हें डर था कि न केवल अनुमति देने से इनकार कर दिया जाएगा, बल्कि इससे उनके बारे में संदेह बढ़ेगा.”
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